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बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं

बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं

जो है काम आज का कल तक उसे लटकाए रखते हैं

तग़ाफ़ुल सा रवा रखते हैं उस के सामने क्या क्या

मगर अंदर ही अंदर तब्अ को ललचाए रखते हैं

हमारी जुस्तुजू से दूर-तर है मंज़िल-ए-मअ'नी

उसी को खोए रखना है जिसे हम पाए रखते हैं

हमारी आरज़ू अपनी समझ में भी नहीं आती

पजामा इस तरह का है जिसे उलटाए रखते हैं

हवाएँ भूल कर भी इस तरफ़ का रुख़ नहीं करतीं

सो ये शाख़-ए-तमाशा आप ही थर्राए रखते हैं

इसी की रौशनी है और इसी में भस्म होना है

ये शोला शाम का जो रात भर भड़काए रखते हैं

हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को

सो अपने आप ही इस चाँद को गहनाए रखते हैं

नशेब-ए-शाइरी में है हमारी ज़ात से रौनक़

यही पत्थर है जिस को रात दिन लुढ़काए रखते हैं

ये घर जिस का है उस ने वापस आना है 'ज़फ़र' इस में

इसी ख़ातिर दर-ओ-दीवार को महकाए रखते हैं

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