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अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था

अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था

दिल में इक ख़्वाब था और ख़्वाब के अंदर कोई था

हम पसीने में शराबोर थे और दूर कहीं

ऐसे लगता है कहीं तख़्त-ए-हवा पर कोई था

उस के बाग़ात पे उतरा हुआ था मौसम-ए-रंग

क़ाबिल-ए-दीद हर इक सम्त से मंज़र कोई था

शक अगर था भी तो मिटता गया होते होते

और अब पुख़्ता यक़ीं है कि सरासर कोई था

इस दिल-ए-तंग में क्या उस की रिहाइश होती

यानी अंदर तो नहीं था मिरे बाहर कोई था

शक्ल कुछ याद है कुछ भूल चुकी है उस की

कोई दिन थे कि मुकम्मल मुझे अज़्बर कोई था

दाएरे में कभी रक्खा ही नहीं उस ने क़दम

और मोहब्बत के मज़ाफ़ात में अक्सर कोई था

मैं उसे छोड़ के ख़ुद ही चला आया था कभी

और अब पूछता फिरता हूँ मिरा घर कोई था

यावा-गो था 'ज़फ़र' इस अहद-ए-ख़राबी में कोई

यावा-गो ही उसे कहते हैं सुख़न-वर कोई था

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