Coupletss of Zafar Iqbal
नाम | ज़फ़र इक़बाल |
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अंग्रेज़ी नाम | Zafar Iqbal |
जन्म की तारीख | 1933 |
जन्म स्थान | Okara, Pakistan |
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
ये हाल है तो बदन को बचाइए कब तक
ये भी मुमकिन है कि इस कार-गह-ए-दिल में 'ज़फ़र'
यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
तुम अपनी मस्ती में आन टकराए मुझ से यक-दम
तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
तन्हा रहने में भी कोई उज़्र नहीं है
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को