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वो नहीं उस की मगर जादूगरी मौजूद है - ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र कविता - Darsaal

वो नहीं उस की मगर जादूगरी मौजूद है

वो नहीं उस की मगर जादूगरी मौजूद है

इक सहर-आलूद मुझ में बे-ख़ुदी मौजूद है

सफ़-ब-सफ़ दुश्मन ही दुश्मन हैं मिरे चारों तरफ़

हौसला देखो कि फिर भी ज़िंदगी मौजूद है

बुझ गई है बस्तियों की आग इक मुद्दत हुई

ज़ेहन में लेकिन अभी तक शो'लगी मौजूद है

बाद-ए-सरसर चल रही है और उस के बावजूद

फिर भी शम्ओं' में अभी तक रौशनी मौजूद है

है अजब ए'जाज़ ये उस की मोहब्बत का 'ज़फ़र'

जागती आँखों में ख़्वाब-ए-ज़िंदगी मौजूद है

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