सर-बुरीदा हुआ मुक़ाबिल है
सब की आँखों में ख़ौफ़ शामिल है
था मुहाफ़िज़ कभी यही इंसाँ
आज इंसानियत का क़ातिल है
बस्तियाँ फूँकना जलाना घर
क्या यही आदमी का हामिल है
वक़्त कब उस का साथ देता है
रोज़ फ़र्दा से जो कि ग़ाफ़िल है
जिस ने बख़्शा था ज़िंदगी को फ़रोग़
अब वो दहशत-गरों में शामिल है