सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया
सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया
माँगी थीं दुआएँ तो असर क्यूँ नहीं आया
देखा था जिसे हम ने कभी शौक़-ए-तलब में
महताब सा वो चेहरा नज़र क्यूँ नहीं आया
हम लोग तो मरते रहे क़िस्तों में हमेशा
फिर भी हमें जीने का हुनर क्यूँ नहीं आया
लगता है मुक़द्दर में मिरे साया नहीं है
मुद्दत से सफ़र में हूँ तो घर क्यूँ नहीं आया
जिस के लिए बैठे थे बिछाए हुए आँखें
महफ़िल में अभी तक वो बशर क्यूँ नहीं आया
मौसम तो हर इक शाख़ के खुलने का 'ज़फ़र' था
फिर उन पे कोई बर्ग-ओ-समर क्यूँ नहीं आया
(1420) Peoples Rate This