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सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया - ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र कविता - Darsaal

सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया

सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया

माँगी थीं दुआएँ तो असर क्यूँ नहीं आया

देखा था जिसे हम ने कभी शौक़-ए-तलब में

महताब सा वो चेहरा नज़र क्यूँ नहीं आया

हम लोग तो मरते रहे क़िस्तों में हमेशा

फिर भी हमें जीने का हुनर क्यूँ नहीं आया

लगता है मुक़द्दर में मिरे साया नहीं है

मुद्दत से सफ़र में हूँ तो घर क्यूँ नहीं आया

जिस के लिए बैठे थे बिछाए हुए आँखें

महफ़िल में अभी तक वो बशर क्यूँ नहीं आया

मौसम तो हर इक शाख़ के खुलने का 'ज़फ़र' था

फिर उन पे कोई बर्ग-ओ-समर क्यूँ नहीं आया

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