सफ़र का सिलसिला आख़िर कहाँ तमाम करूँ
सफ़र का सिलसिला आख़िर कहाँ तमाम करूँ
कहाँ चराग़ चलाऊँ कहाँ क़याम करूँ
सभी के सर पे है रक्खी कुलाह नख़वत की
क़दों की भीड़ में किस किस का एहतिराम करूँ
हैं जितने मोहरे यहाँ सारे पिटने वाले हैं
किसे मैं शह करूँ अपना किसे ग़ुलाम करूँ
अजीब शहर है कोई सुख़न-शनास नहीं
मता-ए-फ़िक्र मैं मंसूब किस के नाम करूँ
मिरा शनासा है कोई न हम-ज़बाँ है कोई
दयार-ए-ग़ैर में फिर किस से मैं कलाम करूँ
सजाऊँ उस के लिए घर बिछाऊँ पलकें 'ज़फ़र'
वो आ रहा है तो कुछ मैं भी एहतिमाम करूँ
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