राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से
राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से
प्यास बुझती है मेरी सहरा से
है मसाइल से अब वही उलझा
रिश्ता जोड़ा है जिस ने दुनिया से
ख़ुशियाँ इमरोज़ की वो पाता है
जो कि ग़ाफ़िल नहीं है फ़र्दा से
जिस को हासिल थीं ने'मतें सारी
अब है महरूम आब-ओ-दाना से
है ख़ुदा की नज़र में आली वही
ख़ुश-दिली से जो मिलता अदना से
थी जिसे साक़ी से 'ज़फ़र' निस्बत
तिश्ना लौटा वो बादा-ख़ाना से
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