लबों पर प्यास सब के बे-कराँ है
लबों पर प्यास सब के बे-कराँ है
हर इक जानिब मगर अंधा कुआँ है
है कोई अक्स-ए-रंगीं आइने पर
जभी तो आइने में कहकशाँ है
किसी से कोई भी मिलता नहीं अब
हर इक इंसाँ यहाँ तो बद-गुमाँ है
फ़िराक़-ओ-वस्ल का क़िस्सा नहीं है
अधूरी किस क़दर ये दास्ताँ है
नहीं कुछ बोलते हैं जब्र सह कर
लगे तरशी हुई सब की ज़बाँ है
वतन में रह के भी है बे-वतन ये
बहुत मज़लूम ये उर्दू ज़बाँ है
किसी का दर्द बाँटे ग़म में रोए
'ज़फ़र' एहसास लोगों में कहाँ है
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