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आइना देखें न हम अक्स ही अपना देखें - ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र कविता - Darsaal

आइना देखें न हम अक्स ही अपना देखें

आइना देखें न हम अक्स ही अपना देखें

जब भी देखें तो हम अपने को अकेला देखें

मोम के लोग कड़ी धूप में आ बैठे हैं

आओ अब उन के पिघलने का तमाशा देखें

तब ये एहसास हमें होगा कि ये ख़्वाब है सब

बंद आँखों को करें ख़्वाब की दुनिया देखें

बात करते हैं तो नश्तर सा उतर जाता है

अब वो लहजे की तमाज़त का ख़सारा देखें

तू ने नज़रें न मिलाने की क़सम खाई है

आइना सामने रख कर तिरा चेहरा देखें

कोई भी शय हसीं लगती नहीं जब तेरे सिवा

ये बता शहर में हम तेरे सिवा क्या देखें

क़त्ल और ख़ूँ के मनाज़िर हैं जो बस्ती बस्ती

कैसे इंसानों की दुनिया का तमाशा देखें

इतना वीरानी से रिश्ता है 'ज़फ़र' अपना अब

ख़्वाब की दुनिया में भी सहरा ही सहरा देखें

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