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साहिल पर दरिया की लहरें सज्दा करती रहती हैं - ज़फर इमाम कविता - Darsaal

साहिल पर दरिया की लहरें सज्दा करती रहती हैं

साहिल पर दरिया की लहरें सज्दा करती रहती हैं

लौट के फिर आने जाने का वादा करती रहती हैं

क्या जाने कब धरती पर सैलाब का मंज़र हो जाए

हर-दम ये मजबूर निगाहें वर्षा करती रहती हैं

उन की नय्या बिन माँझी के पार करेगी सब दरिया

क्यूँकि ढेर दुआएँ जैसे पीछा करती रहती हैं

किस किस मंज़र पर ख़ुद को रंजीदा कर लूँ सोचूँगा

हर मंज़र पर आँखें मेरी नौहा करती रहती हैं

बे-मेहनत जब रोटी क़ैदी बन जाती है थाली की

बे-ग़ैरत सी रातें मुझ से शिकवा करती रहती हैं

पत्थर हो जाएँ या पानी रिम-झिम रिम-झिम बरसाएँ

आँखें सारे मंज़र को आईना करती रहती हैं

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