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मेरे अंदर का ग़ुरूर अंदर गुज़रता रह गया - ज़फर इमाम कविता - Darsaal

मेरे अंदर का ग़ुरूर अंदर गुज़रता रह गया

मेरे अंदर का ग़ुरूर अंदर गुज़रता रह गया

सर से पाँव तक उतरना था उतरता रह गया

बारिशों ने फिर वही ज़हमत उठाई देर से

एक रेगिस्तान है कि फिर भी प्यासा रह गया

ज़िंदगी भर आँख से आँसू नदामत के गिरे

और मेरे दिल का सुफ़्फ़ा यूँ ही सादा रह गया

पहली बारिश ही में तक़्वा के निशाँ सब धुल गए

सर में इक टूटा हुआ मज़लूम सज्दा रह गया

कैसे होगा अब ख़ुदाई बंदगी का फ़ैसला

शहर के सारे ख़ुदा में एक बंदा रह गया

जल्द मंज़िल तक पहुँचने का जुनूँ उस को रहा

ज़िंदगी भर इस लिए रस्ता बदलता रह गया

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