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मैं ही दस्तक देने वाला मैं ही दस्तक सुनने वाला - ज़फर इमाम कविता - Darsaal

मैं ही दस्तक देने वाला मैं ही दस्तक सुनने वाला

मैं ही दस्तक देने वाला मैं ही दस्तक सुनने वाला

अपने घर की बर्बादी पर मैं ही सर को धुनने वाला

जीवन का संगीत अचानक अंतिम सुर को छू लेता है

हँसता ही रहता है फिर भी मेरे अंदर मरने वाला

रिश्ते बोसीदा दीवारों के जैसे ढह जाएँ पल में

लेकिन मैं भी दीवारों के मलबे से सर चुनने वाला

लफ़्ज़ों के पाँव को छू कर आशिर्वादी लहजे में

मेरी ग़ज़लों में भी इक जज़्बा है दिल को छूने वाला

थोड़ी सी मोहलत मिलती तो पापों से मैं ही भर लेता

जीवन का इक सुफ़्फ़ा भी था कैसे सादा रहने वाला

मैं अपने दुख के सागर में कोई पत्थर फेंकूँ कैसे

बरसों तक ना-मुम्किन है वो लौटे लहरें गिनने वाला

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