तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तंहाई
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फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए