शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं
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आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
एक मुट्ठी एक सहरा भेज दे
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद
अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
ज़मीं फिर दर्द का ये साएबाँ कोई नहीं देगा
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में