शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
बता रहा है ये बाद-ए-सबा का चुप रहना
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पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को