समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमअ कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद
अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
एक मुट्ठी एक सहरा भेज दे