ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
तंहाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते
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बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
एक मुट्ठी एक सहरा भेज दे
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का
नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस