फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
मकाँ की नीव ज़मीं से हटा के रक्खी थी
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छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले
उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद
जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे