देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे
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मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में
आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म
ज़मीं फिर दर्द का ये साएबाँ कोई नहीं देगा
फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो