पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा

सब थे नशात-ए-नफ़ा के पीछे हम ने रंज-ए-ज़रर माँगा

अब तक जो दस्तूर-ए-जुनूँ था हम ने वही मंज़र माँगा

सहरा दिल के बराबर चाहा दरिया आँखों भर माँगा

देखना ये है अपने लहू की कितनी ऊँची है परवाज़

ऐसी तेज़ हवा में हम ने काग़ज़ का इक पर माँगा

अब्र के एहसाँ से बचना था दिल को हरा भी रखना था

हम ने इस पौदे की ख़ातिर मौज-ए-दीदा-ए-तर माँगा

कोई असासा पास नहीं और आँधी हर दिन का मामूल

हम ने भी क्या सोच समझ कर बे-दीवार का घर माँगा

खुला कि वो भी तेरी तलब का इक बेनाम तसलसुल था

दुनिया से जो भी हम ने हालात के ज़ेर-ए-असर माँगा

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