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मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए - ज़फ़र गोरखपुरी कविता - Darsaal

मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए

मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए

बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए

रेत मेरी उम्र मैं बच्चा निराले मेरे खेल

मैं ने दीवारें उठाई हैं गिराने के लिए

वक़्त होंटों से मिरे वो भी खुरच कर ले गया

इक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए

आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से

इतनी बारिश एक शोले को बुझाने के लिए

छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद

मैं नए घर में बहुत रोया पुराने के लिए

देर तक हँसता रहा उन पर हमारा बचपना

तजरबे आए थे संजीदा बनाने के लिए

मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में

अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए

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