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कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं - ज़फ़र गोरखपुरी कविता - Darsaal

कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं

कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं

दश्त में ख़ुशबू की बौछारें कहाँ से आ गईं

कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म

मेरे बिस्तर में ये तलवारें कहाँ से आ गईं

ख़्वाब शायद फिर हुआ आँखों में कोई संगसार

ज़ेर-ए-मिज़्गाँ ख़ून की धारें कहाँ से आ गईं

शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है

घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं

साथ है मिलना अगर चाहूँ तो मिलता भी नहीं

एक घर में इतनी दीवारें कहाँ से आ गईं

रख दिया किस ने मिरे शाने पे अपना गर्म हाथ

मुझ शिकस्ता-पा में रफ़्तारें कहाँ से आ गईं

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