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जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे - ज़फ़र गोरखपुरी कविता - Darsaal

जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे

जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे

गए वो लोग जो कार-ए-ज़माना करने वाले थे

उड़ाने के लिए कुछ कम नहीं है ख़ाक घर में भी

वो मौसम ही नहीं हैं जो दिवाना करने वाले थे

मिरी गुम-गश्तगी मेरे लिए छत बन गई वर्ना

ये दुनिया वाले मुझ को बे-ठिकाना करने वाले थे

न देते सारे मंज़र अक्स ही थोड़े से दे देते

हम आवारा कहाँ तज़ईन-ए-ख़ाना करने वाले थे

समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस

जिन्हें हम जमअ कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे

'ज़फ़र' बे-ख़ानमाँ अपने को ख़ुद ही कर लिया तुम ने

ये कार-ए-ख़ैर तो अहल-ए-ज़माना करने वाले थे

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