तिरा यक़ीन हूँ मैं कब से इस गुमान में था
तिरा यक़ीन हूँ मैं कब से इस गुमान में था
मैं ज़िंदगी के बड़े सख़्त इम्तिहान में था
शजर शजर मिरी आमद का मुंतज़िर मौसम
मैं बर्ग-ए-गुल सा हवाओं की इक उड़ान में था
पटक के तोड़ दिया जिस ने नीशा-ए-जाँ को
में जू-ए-शीर सा पिन्हाँ उसी चटान में था
अँधेरी रात में सम्त-ए-सदा पे छोड़ दिया
हवस का तीर जो उस जिस्म की कमान में था
उठा सका न मैं दस्त-ए-तही से पत्थर भी
मताअ-ए-ग़ैर सा वो काँच की दूकान में था
ये दौर-ए-इल्म-ओ-हुनर इस को पढ़ नहीं पाया
सहीफ़ा दिल का मिरा जाने किस ज़बान में था
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