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सिरहाने बेबसी रोती रही है - ज़फ़र अंसारी ज़फ़र कविता - Darsaal

सिरहाने बेबसी रोती रही है

सिरहाने बेबसी रोती रही है

शब-ए-ग़म ज़िंदगी रोती रही है

शब-ए-ग़म सानेहा क्या हो गया था

बहर-सू चाँदनी रोती रही है

ये मेरी शूमी-ए-क़िस्मत पे यारो

सहर तक शम्अ भी रोती रही है

मिरी बे-चारगी पर बज़्म-ए-अंजुम

कभी हँसती कभी रोती रही है

गुलों की मुस्कुराहट याद कर के

गुलिस्ताँ में कली रोती रही है

ख़लिश होती है पत्थर के भी दिल में

बुतों की आँख भी रोती रही है

तुम्हें क्या है ख़बर तन्हाइयों में

सितमगर की गली रोती रही है

फ़क़त आँखें नहीं फ़ुर्क़त की शब में

हमारी रूह भी रोती रही है

'ज़फ़र' जब से हुआ तर्क-ए-तअ'ल्लुक़

हमारी शायरी रोती रही है

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