मोहब्बत पे शायद ज़वाल आ रहा है
मोहब्बत पे शायद ज़वाल आ रहा है
कि अब ज़िंदगी का सवाल आ रहा है
फ़ज़ा महकी महकी है सेहन-ए-चमन की
जो आज इक यहाँ गुल-मिसाल आ रहा है
करूँ किस तरह उन से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़
मुझे उन के दिल का ख़याल आ रहा है
ये किस के तसव्वुर में ऐ जान-ए-अरमाँ
तुझे भी सर-ए-बज़्म हाल आ रहा है
गुज़र सा गया सानेहा क्या चमन में
गुलों पर जो रंग-ए-मलाल आ रहा है
ये दश्त-ए-हवस है जफ़ाओं की दुनिया
इधर क्यूँ हुजूम-ए-ग़ज़ाल आ रहा है
वो बोल उट्ठे देखा जो आशिक़ को आते
इधर कोई आशुफ़्ता-हाल आ रहा है
'ज़फ़र' ये है उस बुत की यादों का सदक़ा
शब-ए-हिज्र लुत्फ़-ए-विसाल आ रहा है
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