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मोहब्बत पे शायद ज़वाल आ रहा है - ज़फ़र अंसारी ज़फ़र कविता - Darsaal

मोहब्बत पे शायद ज़वाल आ रहा है

मोहब्बत पे शायद ज़वाल आ रहा है

कि अब ज़िंदगी का सवाल आ रहा है

फ़ज़ा महकी महकी है सेहन-ए-चमन की

जो आज इक यहाँ गुल-मिसाल आ रहा है

करूँ किस तरह उन से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़

मुझे उन के दिल का ख़याल आ रहा है

ये किस के तसव्वुर में ऐ जान-ए-अरमाँ

तुझे भी सर-ए-बज़्म हाल आ रहा है

गुज़र सा गया सानेहा क्या चमन में

गुलों पर जो रंग-ए-मलाल आ रहा है

ये दश्त-ए-हवस है जफ़ाओं की दुनिया

इधर क्यूँ हुजूम-ए-ग़ज़ाल आ रहा है

वो बोल उट्ठे देखा जो आशिक़ को आते

इधर कोई आशुफ़्ता-हाल आ रहा है

'ज़फ़र' ये है उस बुत की यादों का सदक़ा

शब-ए-हिज्र लुत्फ़-ए-विसाल आ रहा है

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