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हालत-ए-बीमार-ए-ग़म पर जिस को हैरानी नहीं - ज़फ़र अंसारी ज़फ़र कविता - Darsaal

हालत-ए-बीमार-ए-ग़म पर जिस को हैरानी नहीं

हालत-ए-बीमार-ए-ग़म पर जिस को हैरानी नहीं

असल में उस आदमी में ख़ू-ए-इंसानी नहीं

ऐसी बेदर्दी से उस को मत बहाओ ख़ाक पर

ख़ून-ए-इंसाँ ख़ून-ए-इंसाँ है कोई पानी नहीं

रूह का रिश्ता कभी क्या तोड़ पाई है क़ज़ा

ज़िंदगी फ़ानी है लेकिन रूह तो फ़ानी नहीं

जिस की ख़ुशबू से मोअत्तर रात भर रहता था मैं

मेरे घर के पास अब वो रात की रानी नहीं

मैं तअ'ज्जुब में हूँ ये कैसा ज़माना आ गया

चाँद में ठंडक नहीं सूरज में ताबानी नहीं

फिर तिरे ऊपर न टूटे क्यूँ अज़ाबों का पहाड़

तेरे अंदर इक ज़रा भी बू-ए-ईमानी नहीं

यूँ न अपने चाहने वाले को रुस्वा कीजिए

ये तो अंदाज़-ए-सुलूक-ए-दिलबर-ए-जानी नहीं

क्यूँ नहीं तूफ़ाँ का मंज़र तेरी चश्म-ए-शौक़ में

क्यूँ तिरे दरिया-ए-दिल में अब वो तुग़्यानी नहीं

मुतमइन है इश्क़ भी शाम-ए-अलम के बावजूद

हुस्न के चेहरे पे भी अक्स-ए-परेशानी नहीं

इश्क़ में भी तू न पाएगा कहीं मेरा जवाब

जान-ए-मन जो हुस्न में कोई तिरा सानी नहीं

ऐ 'ज़फ़र' पाले हुए हैं वो भी दुनिया की हवस

अब फ़क़ीर-ए-इश्क़ में भी बू-ए-इरफ़ानी नहीं

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