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ग़म इतने अपने दामन-ए-दिल से लिपट गए - ज़फ़र अंसारी ज़फ़र कविता - Darsaal

ग़म इतने अपने दामन-ए-दिल से लिपट गए

ग़म इतने अपने दामन-ए-दिल से लिपट गए

तुझ से बिछड़ के हम कई क़िस्तों में बट गए

क्यूँ ये दयार मेरे लिए तंग सा लगा

क्या बात है कि दामन-ए-सहरा सिमट गए

इस से कहीं भी नाम तुम्हारा नहीं मिला

हम हर वरक़ किताब-ए-वफ़ा के पलट गए

तुम ग़ैर से निभाओ वफ़ा हम को भूल कर

जाओ तुम्हारी राह से हम आज हट गए

अब झेलना पड़ेगा अज़ाब-ए-गुनाह-ए-इश्क़

उस बुत-नुमा ख़ुदा के इरादे पलट गए

जब से मता-ए-दर्द मिली मुझ को ऐ 'ज़फ़र'

क़द मेरे सामने मिरे यारों के घट गए

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