ग़म इतने अपने दामन-ए-दिल से लिपट गए
ग़म इतने अपने दामन-ए-दिल से लिपट गए
तुझ से बिछड़ के हम कई क़िस्तों में बट गए
क्यूँ ये दयार मेरे लिए तंग सा लगा
क्या बात है कि दामन-ए-सहरा सिमट गए
इस से कहीं भी नाम तुम्हारा नहीं मिला
हम हर वरक़ किताब-ए-वफ़ा के पलट गए
तुम ग़ैर से निभाओ वफ़ा हम को भूल कर
जाओ तुम्हारी राह से हम आज हट गए
अब झेलना पड़ेगा अज़ाब-ए-गुनाह-ए-इश्क़
उस बुत-नुमा ख़ुदा के इरादे पलट गए
जब से मता-ए-दर्द मिली मुझ को ऐ 'ज़फ़र'
क़द मेरे सामने मिरे यारों के घट गए
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