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सुख़नवरान-ए-अहद से ख़िताब - ज़फ़र अली ख़ाँ कविता - Darsaal

सुख़नवरान-ए-अहद से ख़िताब

ऐ नुक्ता-वरान-ए-सुख़न-आरा-ओ-सुख़न-संज

ऐ नग़्मा-गिरान-ए-चमनिस्तान-ए-मआफ़ी

माना कि दिल-अफ़रोज़ है अफ़्साना-ए-अज़रा

माना कि दिल-आवेज़ है सलमा की कहानी

माना कि अगर छेड़ हसीनों से चली जाए

कट जाएगा इस मश्ग़ले में अहद-ए-जवानी

गरमाएगा ये हमहमा अफ़्सुर्दा दिलों को

बढ़ जाएगी दरिया-ए-तबीअत की रवानी

माना कि हैं आप अपने ज़माने के 'नज़ीरी'

माना कि हर इक आप में है उर्फ़ी-ए-सानी

माना की हदीस-ए-ख़त-ओ-रुख़्सार के आगे

बेकार है मश्शाइयों की फ़ल्सफ़ा-दानी

माना कि यही ज़ुल्फ़ ओ ख़त-ओ-ख़ाल की रूदाद

है माया-ए-गुल-कारी-ए-ऐवान-ए-मआफ़ी

लेकिन कभी इस बात को भी आप ने सोचा

ये आप की तक़्वीम है सदियों की पुरानी

माशूक़ नए बज़्म नई रंग नया है

पैदा नए ख़ामे हुए हैं और नए 'मानी'

मिज़्गाँ की सिनाँ के एवज़ अब सुनती है महफ़िल

काँटों की कथा बरहना-पाई की ज़बानी

लज़्ज़त वो कहाँ लाल-ए-लब-ए-यार में है आज

जो दे रही है पेट के भूखों की कहानी

बदला है ज़माना तो बदलिए रविश अपनी

जो क़ौम है बेदार ये है उस की निशानी

ऐ हम-नफ़सो याद रहे ख़ूब ये तुम को

बस्ती नई मशरिक़ में हमीं को है बसानी

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