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हर सम्त शोर-ए-बंदा ओ साहिब है शहर में - ज़फ़र अज्मी कविता - Darsaal

हर सम्त शोर-ए-बंदा ओ साहिब है शहर में

हर सम्त शोर-ए-बंदा ओ साहिब है शहर में

क्या अहद-ए-तल्ख़ हिफ़्ज़-ए-मरातिब है शहर में

हर ना-रवा रवा है ब-ईं नाम-ए-मस्लहत

इक कार-ए-इश्क़ ग़ैर-मुनासिब है शहर में

किस हुस्न-ए-पुर-तजल्ली की हर चीज़ है असीर

हैबत ये किस के हुक्म की ग़ालिब है शहर में

इक ख़ौफ़-ए-दुश्मनी जो तआक़ुब में सब के है

इक हर्फ़-ए-लुत्फ़ जो कहीं ग़ाएब है शहर में

मैं तन्हा बीना शख़्स हूँ अम्बोह-ए-ख़ल्क़ में

सब आइनों का रुख़ मिरी जानिब है शहर में

इस ख़ाक-ए-मुर्दा पर किसे आवाज़ दें 'ज़फ़र'

हिजरत हम ऐसे लोगों पे वाजिब है शहर में

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