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बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं - ज़फ़र अज्मी कविता - Darsaal

बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं

बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं

तुम्हारे इश्क़ में अब जा के सुर्ख़-रू हुए हैं

हवा के साथ उड़ी है मोहब्बतों की महक

ये तज़्किरे जो मिरी जान कू-ब-कू हुए हैं

वो शब तो कट गई जो प्यास की थी आख़िरी शब

शरीक गिर्या-ए-शबनम में अब सभू हुए हैं

तुम्हारे हुस्न की तश्बीब ही कही है अभी

चराग़ जलने लगे फूल मुश्क-बू हुए हैं

अजीब लुत्फ़ है इस टूटने बिखरने में

हम एक मुश्त-ए-ग़ुबार अब चहार-सू हुए हैं

बजा है ज़िंदगी से हम बहुत रहे नाराज़

मगर बताओ ख़फ़ा तुम से भी कभू हुए हैं

मैं तार-तार 'ज़फ़र' हो गया हूँ जिस के सबब

फ़लक के चाक उसी फ़िक्र से रफ़ू हुए हैं

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