उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
वो जो कल कहते थे दीवाना भी सौदाई भी
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मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
सवाली
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
जो हुरूफ़ लिख गया था मिरी आरज़ू का बचपन
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
आ मिरे चाँद रात सूनी है
एक भी आफ़्ताब बन न सका
हाए ये तवील ओ सर्द रातें