थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र'
जाने कब उठ सकूँ क्या जानिए कब घर जाऊँ
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जो हुरूफ़ लिख गया था मिरी आरज़ू का बचपन
पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ
यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
मैं हूँ तेरे लिए बेनाम-ओ-निशाँ आवारा
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा