साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
ज़िंदगी थी जो तिरे वस्ल का इम्काँ होता
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पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ
यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
मैं हूँ तेरे लिए बेनाम-ओ-निशाँ आवारा
पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
क्या ढूँडने आए हो नज़र में
आ मिरे चाँद रात सूनी है
बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है