पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
पलकों पे अश्क बन के ठहर जाना चाहिए
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बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं
ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है कल से
वादी-ए-नील
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
एक भी आफ़्ताब बन न सका
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से