है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
तेरा ग़म भी है मुझे और ग़म-ए-तन्हाई भी
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वादी-ए-नील
बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ
ख़बर
बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
क्या ढूँडने आए हो नज़र में
आँखों में तिरे जल्वे लिए फिरते हैं हम लोग
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा