हाए ये तवील ओ सर्द रातें
और एक हयात-ए-मुख़्तसर में
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आ मिरे चाँद रात सूनी है
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
शहर लगता है बयाबान मुझे
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
ख़बर
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र'
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ
साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं