दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
क़ुर्ब में भी वही उनवाँ है क़रीब आ जाओ
Parveen Shakir
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Allama Iqbal
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ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद
ख़बर
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
जो हुरूफ़ लिख गया था मिरी आरज़ू का बचपन
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
आँखों में तिरे जल्वे लिए फिरते हैं हम लोग
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
आ मिरे चाँद रात सूनी है
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं