बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
अहबाब परेशाँ हैं मिरे तर्ज़-ए-अमल से
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पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
आँखों में तिरे जल्वे लिए फिरते हैं हम लोग
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ
शहर लगता है बयाबान मुझे
ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद
वादी-ए-नील
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं
हाए ये तवील ओ सर्द रातें