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वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ - यूसुफ़ ज़फ़र कविता - Darsaal

वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ

वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ

कि उस का ग़म ही मिरी ज़ीस्त का बहा न हुआ

नज़र ने झुक के कहा मुझ से क्या दम-ए-रुख़्सत

मैं सोचता हूँ कि किस दिल से वो रवाना हुआ

नम-ए-सबा मय-ए-महताब इत्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-शमीम

वो क्या गया कि कोई कारवाँ रवाना हुआ

वो याद याद में झलका है आइने की तरह

इस आइने में कभी अपना सामना न हुआ

वो चंद साअ'तें जो उस के साथ गुज़री हैं

उन्ही का दौर रहा और जावेदाना हुआ

मैं उस के हिज्र की तारीकियों में डूबा था

वो आया घर में मिरे और चराग़-ए-ख़ाना हुआ

वो लौट आया है या मेरी ख़ुद-फ़रेबी है

निगाह कहती है देखे उसे ज़माना हुआ

मैं अपने दर्द की निस्बत को दिल समझता हूँ

क़फ़स जो टूट गया मेरा आशियाना हुआ

उसी की याद है सरमाया-ए-हयात 'ज़फ़र'

नहीं तो मेरा है क्या मैं हुआ हुआ न हुआ

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