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पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो - यूसुफ़ ज़फ़र कविता - Darsaal

पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो

पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो

अगरचे मेरी सदा भी सदा-ब-सहरा हो

जहाँ तुम्हारा है होगा वही जो तुम चाहो

मुझे भी चाहने दो कुछ अगर तो फिर क्या हो

जहान ओ अहल-ए-जहाँ को किसी से काम नहीं

मिरे क़रीब तो आओ कि तुम भी तन्हा हो

ज़माना मदफ़न-ए-अय्याम है ख़मोश रहो

न जाने कौन हमारी सदा को सुनता हो

भरम खुला है तो ऐसे हर इक को देखता हूँ

कि जैसे मैं ने कभी आदमी न देखा हो

तिरा करम है कि में तेरे दम से जीता हूँ

मिरा नसीब कि तू मेरे दम से रुस्वा हो

तिरे ख़याल में गुम हो के तय किए मैं ने

वो मरहले कि जहाँ मौज आबला-पा हो

सज़ा-ए-ज़ीस्त क़यामत सही मगर हम लोग

वो ज़िंदा हैं जिन्हें हर रोज़ रोज़-ए-फ़र्दा हो

धड़कते दिल की सदा भी अजीब शय है 'ज़फ़र'

कि जैसे कोई मिरे साथ साथ चलता हो

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