मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से

मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से

तुम ने पूछा नहीं बहारों से

चाँदनी से सहाब-पारों से

जी बहलता है यादगारों से

आ मिरे चाँद रात सूनी है

बात बनती नहीं सितारों से

मंज़िल-ए-ज़िंदगी है कितनी दूर

पूछ लेता हूँ रहगुज़ारों से

बात जब भी छिड़ी मोहब्बत की

ख़ामुशी बोल उठी मज़ारों से

एक भी आफ़्ताब बन न सका

लाख टूटे हुए सितारों से

शाम-ए-ग़म भी गुज़र गई है 'ज़फ़र'

खेलते खेलते ग़ुबारों से

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