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क्या ढूँडने आए हो नज़र में - यूसुफ़ ज़फ़र कविता - Darsaal

क्या ढूँडने आए हो नज़र में

क्या ढूँडने आए हो नज़र में

देखा है तुम्हीं को उम्र-भर में

मेयार-ए-जमाल-ओ-रंग-ओ-बू थे

वो जब तक रहे मेरी चश्म-ए-तर में

अब ख़्वाब-ओ-ख़याल बन गए हो

अब दिल में रहो, रहो नज़र में

वो रंग तुम्हारे काम आया

उड़ता है जो ग़म की दोपहर में

हाए ये तवील ओ सर्द रातें

और एक हयात-ए-मुख़्तसर में

अब सूरत-ए-हाल बन गया हूँ

मिलता हूँ निगाह-ए-चारागर में

या और सितारे और शबनम

या मर रहें दामन-ए-सहर में

या मंज़िल-ए-महर-ओ-माह भी है

या राह-ए-फ़रार है सफ़र में

वो भी तो 'ज़फ़र' से ख़ुश नहीं हैं

रहते हैं जो दीदा-ए-'ज़फ़र' में

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