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जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है - यूसुफ़ ज़फ़र कविता - Darsaal

जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है

जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है

उस को ध्यान में लाऊँ कैसे वो सपनों का बासी है

फूलों के गजरे तोड़ गई आकाश पे शाम सलोनी शाम

वो राजा ख़ुद कैसे होंगे जिन की ये चंचल दासी है

काली बदरिया सीप सीप तो बूँद बूँद से भर जाएगा

देख ये भूरी मिट्टी तो बस मेरे ख़ून की प्यासी है

जंगल मेले और शहरों में धरा ही क्या है मेरे लिए

जग जग जिस ने साथ दिया है वो तो मेरी उदासी है

लौट के उस ने फिर नहीं देखा जिस के लिए हम जीते हैं

दिल का बुझाना इक अंधेर है यूँ तो बात ज़रा सी है

चाँद-नगर से आने वाली मिट्टी कंकर रोल के लाए

धर्ती-माँ चुप है जैसे कुछ सोच रही हो ख़फ़ा सी है

हर रात उस की बातें सुन कर तुझ को नींद आती है 'ज़फ़र'

हर रात उसी की बातें छेड़ें ये तो अजब बिपता सी है

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