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हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं - यूसुफ़ ज़फ़र कविता - Darsaal

हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं

हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं

ख़ुश हैं कि तिरे ग़म के सज़ा-वार हुए हैं

उठ्ठे हैं तिरे दर से अगर सूरत-ए-दीवार

रुख़्सत भी तो जूँ साया-ए-दीवार हुए हैं

क्या कहिए नज़र आती है क्यूँ ख़्वाब ये दुनिया

क्या जानिए किस ख़्वाब से बेदार हुए हैं

आँखों में तिरे जल्वे लिए फिरते हैं हम लोग

हम लोग कि रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुए हैं

कुछ देख के पीते हैं लहू अहल-ए-तमन्ना

मय-ख़्वार किसी बात पे मय-ख़्वार हुए हैं

ज़ंजीर-ए-हवादिस की है झंकार बहर-गाम

क्या जुर्म किया था कि गिरफ़्तार हुए हैं

इज़हार-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त करें क्या कि 'ज़फ़र' हम

वो ग़म हैं कि शर्मिंदा-ए-इज़हार हुए हैं

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