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है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी - यूसुफ़ ज़फ़र कविता - Darsaal

है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी

है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी

तेरा ग़म भी है मुझे और ग़म-ए-तन्हाई भी

दश्त-ए-वहशत में ब-जुज़-रेग-ए-रवाँ कोई नहीं

आज कल शहर में है लाला-ए-सहराई भी

मैं ज़माने में तिरा ग़म हूँ ब-उनवान-ए-वफ़ा

ज़िंदगी मेरी सही है तिरी रुस्वाई भी

आज तू ने भी मिरे हाल से मुँह फेर लिया

आज नम-नाक हुई चश्म-ए-तमाशाई भी

अब खुला है कि तिरा हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल था करम

गरचे कुछ देर तबीअत मिरी घबराई भी

जुज़-ग़म-ए-दहर मुझे कोई न पहचान सका

तिरे कूचे में तिरी याद मुझे लाई भी

उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं

वो जो कल कहते थे दीवाना भी सौदाई भी

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