शब पलंग पर हाँपते साए रहे
ख़्वाब दरवाज़े खड़ा तकता रहा
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मिरे भी सुर्ख़-रू होने का इक मौक़ा निकल आता
दर्द की ख़ुशबू से ये महका रहा
खाँसती मद्धम सी इक आवाज़ जब से खो गई
झूट के पाँव
वाहिमा
ख़ुद-फ़रेबी
इतना करम कि अज़्म रहे हौसला रहे
उसी यक़ीन उसी दस्त-ओ-पा की हाजत है
लम्हा लम्हा फैलती जाती है रात
मैं जीना चाहता हूँ मगर
हर लहज़ा मिरी ज़ीस्त मुझे बार-ए-गराँ है
ख़ुद-शनासी