ज़रा देखो
मिरी आँखों के आँगन में
कहीं कुछ ख़्वाब के मंज़र
उमीदों की हरी बेलें
तमन्नाओं की रुपहली
चमकती धूप तो फैली नहीं है
या कहीं कोई
ये बंजर सा ख़राबा है
जहाँ शुबहात के आसेब
बस्ते हैं!
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Allama Iqbal
Anwar Masood
Gulzar
Jaun Eliya
Rahat Indori
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(787) Peoples Rate This
इंतिबाह
वाहिमा
झूट के पाँव
मैं जीना चाहता हूँ मगर
ऐ पड़ोसी तू बता हम को तो कुछ होश नहीं
पटरियों की चमकती हुई धार पर फ़ासले अपनी गर्दन कटाते रहे
मिरे भी सुर्ख़-रू होने का इक मौक़ा निकल आता
दर्द की ख़ुशबू से ये महका रहा
बरसों बअ'द जो देखा उस को सर पर उलझा जोड़ा था
हाल कुछ अब के जुदा है तिरे दीवानों का
इतना करम कि अज़्म रहे हौसला रहे
खाँसती मद्धम सी इक आवाज़ जब से खो गई