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मिरे भी सुर्ख़-रू होने का इक मौक़ा निकल आता - यूसुफ़ तक़ी कविता - Darsaal

मिरे भी सुर्ख़-रू होने का इक मौक़ा निकल आता

मिरे भी सुर्ख़-रू होने का इक मौक़ा निकल आता

ग़म-ए-जानाँ के मलबे से ग़म-ए-दुनिया निकल आता

ये माना मैं थका-हारा मुसाफ़िर हूँ मगर फिर भी

तुम्हारे साथ चलने का कोई रस्ता निकल आता

तिरी यादों की पथरीली ज़मीं शादाब हो जाती

अगर आँखों के सहरा से कोई दरिया निकल आता

चलो अच्छा हुआ ठहरा न वो भी आख़िर-ए-शब तक

कि उस के बअ'द तो फिर सुब्ह का तारा निकल आता

कहाँ बे-ताब रख सकता था फिर एहसास-ए-महरूमी

दयार-ए-ग़ैर में तुम सा कोई अपना निकल आता

रिदा-ए-आगही के बोझ ने ख़म कर दिया वर्ना

हमारा क़द भी फिर तुम से बहुत ऊँचा निकल आता

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